Friday, July 22, 2016

डहरिया साहब, यह लोकतांत्रिक पाप है

कांगे्रस के वरिष्ठ नेता शिव डहरिया साहब से अपनी ना तो दोस्ती है और ना ही दुश्मनी। जब वे विधायक  थे तब एक-दो बार विधानसभा में हैलो-हॉय जरूर हुआ। पेशाई होड़ भी नही है। कहां वे सुघड़ राजनीतिज्ञ और कहां अपन टुच्चे से पत्रकार लेकिन दोनों गुरूघासीदास बाबा के इस सिद्धांत पर भरोसा करते हैं कि हमेशा सच बोलो। अब तक के अपने जीवन में पहली बार देखा है कि कोई नेता चंद दिनों पूर्व अपने परिवार के साथ घटे हत्याकाण्ड को इस कदर राजनीतिक अवसरवाद में तब्दील कर सकता है? आप समझ गए होंगे कि मैं कांग्रेस नेता शिव डहरिया जी के उस आरोप की बात कर रहा हूं जिसमें उन्होंने अपने परिवार के साथ हुए दु:खद हादसे के पीछे पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का हाथ होने का इजारेदाराना प्रहार किया है। हालांकि जिस तरह की बातें हो रही हैं या पुलिस जांच में जो संकेत मिले हैं, उसके मुताबिक हत्यारा उन्हीं के घर-गांव में है?

छत्तीसगढ़ की राजनीति में तेजी से उभरे चेहरों में हमन शिव डहरिया ला जानते हैं। जमीन से जुड़े  सतनामी समुदाय से हैं और जोगी सरकार में वे संगठन और पार्टी में खासी पहुंच भी रखते थे। डहरिया के साथ-साथ पार्टी के दिगगज भी मानते हैं कि उन्हें फर्श से उठाकर अर्श तक पहुंचाने में जोगी परिवार का आर्शीवाद रहा। फिर क्या वजह रही होगी कि सतनामी समाज के इस धरातलीय नेता के मुंह से हाई-फाई आरोप निकला? डहरिया साहब ने तर्क रखा कि जोगी परिवार ने अपनी नई पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस में शामिल होने के लिए मुझ पर दबाव बनाया था, जिसे मैंने नहीं माना इसलिए शक है कि मुझ पर दबाव बनाने के लिए यह साजिश रची गई। अपने-अपने आकाओं की चापलूसी करने वाले कांग्रेसियों को छोड़ दें तो अधिकांश इसे डहरिया का महज पब्लिसिटी पाने और प्रदेश कांग्रेस के आलाकमान के समक्ष वफादारी प्रगट करने की असफल हाँक भर कह रहे हैं। मैंने प्रदेश कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं से चर्चा की तो उनने साफ कहा कि यह आरोप लगाने के पूर्व उन्होंने हमसे कोई सलाह नही ली। अगर लेते भी तो वे इस तरह के गटर-लेवली बयान का समर्थन हरगिज नही करते।

साफ है कि जोगी जी की छाप लेकर जी रहे डहरिया साहब ने आलाकमान के प्रति स्वामीभक्ति प्रगट करने के उद्देश्य से यह आरोप लगाया। जनता के बीच भी दस में से सात लोगों ने यही रॉय रखी। न्याय मांगना और किसी को षड्यंत्री करार देने में बड़ा फर्क है। पता नही, डहरिया साहब समझ पाए कि नही मगर हत्याकाण्ड के बाद उनके प्रति जनता की जो सहानुभूति उमड़ी थी, वह भी इस बयान से धुल गई है। यह भारतीय राजनीति का फिनोमिना बन चुका है कि राजनीतिक आकाओं के प्रति वफादारी साबित करने के लिए आप किसी भी स्तर तक जा सकते हैं मगर वह परिवार में घटी दुर्घटना और उससे हुई मौत को भुनाने के स्तर पर कदापि स्वीकार नही हो सकता। इसे बेहतर ढंग से साबित किया खुद गांधी परिवार ने। बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस जैसी बेचारी और नामुराद पार्टी में राजनीति के लिए क्या यही बचा है कि आप अपनी मां की मौत या पिता पर हुए हमले को राजनीतिक हथियार बना लें?

हालांकि यह परिपाटी सालों से चली आ रही है। कभी सोनिया गांधी के समक्ष यह नारा लगा करता था कि सोनिया हम शर्मिंदा हैं-राजीव के कातिल जिंदा हैं क्योंकि मैडम के सामने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहा राव या केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह जैसे नेता खड़े रहते थे जिन पर राजीव गांधी के हत्यारों को जल्द से जल्द सजा दिलवाने का दबा व बनाया जाता था। वैचारिक प्रतिबद्धता को फिलहाल भूल जाऊं तो मैं सोनिया गांधी का उस समय मुरीद हुआ था जब वे प्रधानमंत्री जैसा सर्वोच्च पद ठुकराकर भारतीय राजनीति की दधीचि साबित हुई थीं। उनकी बिटिया और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की नई उम्मीद नजर आ रही प्रियंका गांधी ने भी एक बार बड़ा दिल दिखाते हुए कहा था कि मेरे पिता के हत्यारे तो उनके साथचले गए लेकिन षड्यंत्र रचने के आरोप में जो लोग सजा काट रहे हैं, उन्हें रिहा कर देना चाहिए।

संस्कार की गहराई देखिए कि डहरिया के इस आरोप पर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने बड़प्पनभरा बयान दिया कि शिव के परिवार से उनके पारिवारिक संबंध हैं। छोटे जोगी ने भी गुस्से को जब्त करते हुए कहा : हमारे पारिवारिक रिश्ते इस कदर रहे कि मेरी शादी में उनके माता-पिता ने एक एकड़ जमीन दान में दी। और जब उनके माता-पिता पर प्राणघातक हमला हुआ तो जो चुनिंदा लोग डहरिया के पास सबसे पहले पहुंचे, उनमें से एक मेरे पिताजी भी थे। भगवान ऐसा दु:ख किसी को ना दे। यहां दरवाजे पर खड़ा गंभीर सवाल यह भी है कि बिना हाथ-पैर के इस आरोप से डहरिया जी को क्या मिला या मिलेगा?

साफ कर दूं कि मैं जोगी परिवार को बचाने की कोशिश नही कर रहा। वे तो मुझे दक्षिणपंथी विचारों वाला पत्रकार समझकर कन्नी काटते रहे हैं मगर जब हमारे राजनीतिक जीवन में सत्य-निष्ठाएं या बेसिर-पैर के आरोपों से राजनीतिक शुचिता को धूमिल करने की कोशिश हो तब पत्रकार नही लिखेगा तो कौन कहेगा? परिपाटी सी हो गई है कि कोई बुरा राजनीतिक घटनाक्रम घटा नही कि शक की सुई जोगी परिवार की ओर फेर दी जाती है। यह ठीक है कि बोए पेड़ बबूल के तो आम कहां से होय? साीनियर-जूनियर जोगी भलीभांति जानते हैं कि सन् 2000 से 03 तक के उनके शासनकाल में जो पाप हुए, उससे प्रभावित लोगों के श्रॉप से वे या उनकी पुरानी पार्टी कांग्रेस, आज तक नही उबर सकी। फिर एक बार जो छबि जोगीद्वय की बनी, वह बीच-बीच में उठते निराधार आरोपों से और मजबूत होती चली गई।

हालांकि जोगी विरोधियों के षडयंत्र या आरोप जोगीद्वय का बाल बांका तक नहीं कर सके। अगर आप भुलुंठित नही हुए होंगे तो जगगी हत्याकाण्ड से छोटे जोगी बाइज्जत बरी हो चुके हैं। जूदेव-जोगी सीडी काण्ड में भी वे पाक साफ निकले। और यदि झीरम घाटी काण्ड की बात करें तो इस मामले में भी शक की उंगलियां नक्सली या सरकार से ज्यादा जोगीद्वय पर उठाई गई, लेकिन 10 साल के कांग्रेसी शासन यूपीए सरकार में उनसे पूछताछ तक नही हुई। एनआईए ने भी जोगीद्वय की तरफ आंख तक नही फेरी। काश शिव डहरिया जी समझ पाते कि ऐसे आरोपों से सहानुभूति नही मिलती बल्कि लोग आपके विवेक-कौशल पर ठहाके लगाते हैं, जैसे मैं लगा रहा हूं।

अनिल द्विवेदी
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं)
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Thursday, July 21, 2016

डहरिया साहब, यह लोकतांत्रिक पाप है

कांगे्रस के वरिष्ठ नेता शिव डहरिया साहब से अपनी ना तो दोस्ती है और ना ही दुश्मनी। जब वे मंत्री थे तब एक-दो बार विधानसभा में हैलो-हॉय जरूर हुआ। पेशाई होड़ भी नही है। कहां वे सुघड़ राजनीतिज्ञ और कहां अपन टुच्चे से पत्रकार लेकिन दोनों गुरूघासीदास बाबा के इस सिद्धांत पर भरोसा करते हैं कि हमेशा सच बोलो और कोई झूठ बोले तो उसे आईना दिखाओ। अब तक के अपने जीवन में पहली बार देखा है कि कोई नेता चंद दिनों पूर्व अपने परिवार के साथ घटे हत्याकाण्ड को इस कदर राजनीतिक अवसरवाद में तब्दील कर सकता है? आप समझ गए होंगे कि मैं कांग्रेस नेता शिव डहरिया जी के उस आरोप की बात कर रहा हूं जिसमें उन्होंने अपने परिवार के साथ हुए दु:खद हादसे के पीछे पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का हाथ होने का इजारेदाराना प्रहार किया है। हालांकि जिस तरह की बातें हो रही हैं या पुलिस जांच में जो संकेत मिले हैं, उसके मुताबिक हत्यारा उन्हीं के घर-गांव का हो सकता है।

छत्तीसगढ़ की राजनीति में तेजी से उभरे चेहरों में हमन शिव डहरिया ला जानते हैं। जमीन से जुड़े  सतनामी समुदाय से हैं और जोगी सरकार में ईमानदार मंत्री के तौर पर गिने जाते रहे। डहरिया के साथ-साथ पार्टी के दिगगज भी मानते हैं कि उन्हें फर्श से उठाकर अर्श तक पहुंचाने में जोगी परिवार का आर्शीवाद रहा। फिर क्या वजह रही होगी कि सतनामी समाज के इस धुरंधर नेता के मुंह से इतना घटिया आरोप निकला? डहरिया साहब ने तर्क रखा कि जोगी परिवार ने अपनी नई पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस में शामिल होने के लिए मुझ पर दबाव बनाया था, जिसे मैंने नहीं माना इसलिए शक है कि मुझ पर दबाव बनाने के लिए यह साजिश रची गई। अपने-अपने आकाओं की चापलूसी करने वाले कांग्रेसियों को छोड़ दें तो अधिकांश इसे डहरिया का महज पब्लिसिटी पाने और प्रदेश कांग्रेस के आलाकमान के समक्ष वफादारी प्रगट करने की असफल हाँक भर कह रहे हैं। मैंने प्रदेश कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं से चर्चा की तो उनने साफ कहा कि यह आरोप लगाने के पूर्व शिव डहरिया ने उनसे कोई सलाह नही ली। अगर लेते भी तो वे इस तरह के गटर-लेवली बयान का समर्थन हरगिज नही करते।

साफ है कि जोगी जी की छाप लेकर जी रहे डहरिया साहब ने आलाकमान के प्रति स्वामीभक्ति प्रगट करने के उद्देश्य से यह आरोप लगाया। जनता के बीच भी दस में से सात लोगों ने यही रॉय रखी। न्याय मांगना और किसी को षड्यंत्री करार देने में बड़ा फर्क है। पता नही, डहरिया साहब समझ पाए कि नही मगर हत्याकाण्ड के बाद उनके प्रति जनता की जो सहानुभूति उमड़ी थी, वह भी इस बयान से धुल गई है। यह भारतीय राजनीति का फिनोमिना बन चुका है कि राजनीतिक आकाओं के प्रति वफादारी साबित करने के लिए आप किसी भी स्तर तक जा सकते हैं मगर वह परिवार में घटी दुर्घटना और उससे हुई मौत को भुनाने के स्तर पर कदापि स्वीकार नही हो सकता। इसे बेहतर ढंग से साबित किया खुद गांधी परिवार ने। बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस जैसी बेचारी और नामुराद पार्टी में राजनीति के लिए क्या यही बचा है कि आप अपनी मां की मौत या पिता पर हुए हमले को राजनीतिक हथियार बना लें?

हालांकि यह परिपाटी सालों से चली आ रही है। कभी सोनिया गांधी के समक्ष यह नारा लगा करता था कि सोनिया हम शर्मिंदा हैं-राजीव के कातिल जिंदा हैं क्योंकि मैडम के सामने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहा राव या केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह जैसे नेता खड़े रहते थे जिन पर राजीव गांधी के हत्यारों को जल्द से जल्द सजा दिलवाने का दबा व बनाया जाता था। वैचारिक प्रतिबद्धता को फिलहाल भूल जाऊं तो मैं सोनिया गांधी का उस समय मुरीद हुआ था जब वे प्रधानमंत्री जैसा सर्वोच्च पद ठुकराकर भारतीय राजनीति की दधीचि साबित हुई थीं। उनकी बिटिया और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की नई उम्मीद नजर आ रही प्रियंका गांधी ने भी एक बार बड़ा दिल दिखाते हुए कहा था कि मेरे पिता के हत्यारे तो उनके साथ ही चले गए लेकिन षड्यंत्र रचने के आरोप में जो लोग सजा काट रहे हैं, उन्हें रिहा कर देना चाहिए।

संस्कार की गहराई देखिए कि डहरिया के इस आरोप पर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने बड़प्पनभरा बयान दिया कि शिव के परिवार से उनके पारिवारिक संबंध हैं। छोटे जोगी ने भी गुस्से को जब्त करते हुए कहा : हमारे पारिवारिक रिश्ते इस कदर रहे कि मेरी शादी में उनके माता-पिता ने एक एकड़ जमीन दान में दी। और जब उनके माता-पिता पर प्राणघातक हमला हुआ तो जो चुनिंदा लोग डहरिया के पास सबसे पहले पहुंचे, उनमें से एक मेरे पिताजी भी थे। भगवान ऐसा दु:ख किसी को ना दे। यहां दरवाजे पर खड़ा गंभीर सवाल यह भी है कि बिना हाथ-पैर के इस आरोप से डहरिया जी को क्या मिला या मिलेगा?

साफ कर दूं कि मैं जोगी परिवार को बचाने की कोशिश नही कर रहा। वे तो मुझे दक्षिणपंथी विचारों वाला पत्रकार समझकर कन्नी काटते रहे हैं मगर जब हमारे राजनीतिक जीवन में सत्य-निष्ठाएं या राजनीतिक शुचिता दाँव पर हो, या बेसिर-पैर के आरोपों से राजनीतिक शुचिता को धूमिल करने की कोशिश हो तब पत्रकार नही लिखेगा तो कौन कहेगा? परिपाटी सी हो गई है कि कोई बुरा राजनीतिक घटनाक्रम घटा नही कि शक की सुई जोगी परिवार की ओर फेर दी जाती है। यह ठीक है कि बोए पेड़ बबूल के तो आम कहां से होय। साीनियर-जूनियर जोगी भलीभांति जानते हैं कि सन् 2000 से 03 तक के उनके शासनकाल में जो पाप हुए, उससे प्रभावित लोगों के श्रॉप से वे या उनकी पुरानी पार्टी कांग्रेस, आज तक नही उबर सकी। फिर एक बार जो छबि जोगीद्वय की बनी, वह बीच-बीच में उठते निराधार आरोपों से और मजबूत होती चली गई।

हालांकि जोगी विरोधियों के षडयंत्र या आरोप जोगीद्वय का बाल बांका तक नहीं कर सके। अगर आप भुलुंठित नही हुए होंगे तो जगगी हत्याकाण्ड से छोटे जोगी बाइज्जत बरी हो चुके हैं। जूदेव-जोगी सीडी काण्ड में भी वे पाक साफ निकले। और यदि झीरम घाटी काण्ड की बात करें तो इस मामले में भी शक की उंगलियां नक्सली या सरकार से ज्यादा जोगीद्वय पर उठाई गई, लेकिन 10 साल के कांग्रेसी शासन यूपीए सरकार में उनसे पूछताछ तक नही हुई। एनआईए ने भी जोगीद्वय की तरफ आंख तक नही फेरी। काश शिव डहरिया जी समझ पाते कि ऐसे आरोपों से सहानुभूति नही मिलती बल्कि लोग आपके विवेक-कौशल पर ठहाके लगाते हैं जैसे मैं लगा रहा हूं।

अनिल द्विवेदी
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं)
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Sunday, December 13, 2015

सिस्टम बिका है, आप नहीं

मॉडल जेसिका लाल, आरूषि, मदेरणा, गोपाल हाण्डा की तरह ही सलमान खान मामले में भी मीडिया ट्रायॅल शुरू होना चाहिए ताकि गरीबों को न्याय मिल सके।  


जरा वर्ष 1999 याद कीजिए. कांग्रेस के भूतपूर्व संसद सदस्य और केन्द्रीय राज्यमंत्री रह चुके विनोद शर्मा के बिगडैल शहजादे मनु शर्मा ने शराब ना परोसने के दण्डस्वरूप दिल्ली में मॉडल जेसिका लाल की गोली मारकर हत्या कर दी थी. बेहद हाईप्रोफाइल केस की चार साल तक चली सुनवाई के बाद आरोपी को निचली अदालत ने यह कहते हुए बरी कर दिया था कि उसे पुख्ता सुबूत नहीं मिले थे. 

जहां तक मेरी जानकारी है, इस शर्मनाक फैसले के खिलाफ जेसिका के रिश्तेदार, कुछ एनजीओ लामबंद हुए थे और ‪प्त‎हृष्ठञ्जङ्क‬ एनडीटीवी सहित कुछ और न्यूज चैनलों ने मुहिम को थामते हुए असली न्याय पाने की लडाई लडी थी. संभवत: राष्ट्रपति के पास प्रकरण को पुन: खोलने की मांग की गई थी तथा इजाजत मिलने के बाद मामला पुन: उपरी अदालत में चला और अन्तत: मुख्य आरोपी मनु शर्मा को 2006 में उम्र कैद की सजा हुई थी और जेसिका के परिजनों को न्याय मिला था. इस पर एक फिल्म भी बनी जिसका नाम था : नो वन किल्ड जेसिका.

अभी ताजा मामला सलमान खान से जुडा है. अगर हम सबको लगता है कि अभिनेता सलमान खान के मामले में पैसों और रसूख के दम पर न्याय को खरीदा गया है तथा लैण्डक्रूजर कार से मारे गए लोगों के परिजनों को न्याय मिलना चाहिए तो एक बार पुन: हम सबको इस फैसले के खिलाफ उठ खडा होना चाहिए. अपने  फैसले में एक न्यायाधीश ने माना है कि पुलिस ने मामले को ठीक से जांचा नहीं और ना ही सुबूत पेश किए.  ऐसे में आरोपी सलमान को सजा कैसे मिलती? 

मैंने पत्रकारिता में पढ़ा है कि लोकतंत्र के तीन खम्भे— न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका किसी को न्याय दिलाने में असमर्थ होते दिखें तो फिर चौथे स्तंभ खबरपालिका को इसकी मशाल थमानी चाहिए. फिलहाल पत्रकारिता में आने को इच्छुक नई कोपलों को पढा रहा हूं और उन्हें बताता हूं कि किस तरह एनडीटीवी ने मॉडल जेसिका लाल हत्याकाण्ड में ईमानदारी दिखाई इसलिए मुझे सबसे ज्यादा उम्मीद एनडीटीवी से है.. रवीश कुमार से है और बाकी न्यूज चैनलों से भी. 

क्योंकि टीवी—अखबार वाले अपने समाज की संवेदनहीनता और गैरजिम्मेदारी पर बडे हमले करते हैं तब सलमान खान के मामले में चुप कैसे रहा जा सकता है! मीडिया ने ऐसा नही किया तो यह धारणा ज्यादा बलवती हो जाएगी कि चौथा स्तंभ— सिस्टम, पूंजीपतियों और रसूखदारों की रखैल हो गया है. उम्मीद जिंदा है क्योंकि अभिनेता संजय दत्त मात्र बंदूक रखने के आरोप में जेल जा सकते हैं तो सलमान खान क्यों नहीं जिनकी लैण्ड्क्रूजर गाडी ने गरीबों को कुचलकर मार डाला. साफ है कि मॉडल जेसिका लाल, आरूषी की तरह ही सलमान खान केस में भी मीडिया ट्रॉयल शुरू हो. 

वैसे मीडिया आम आदमी की आवाज है इसलिए जो लोग सलमान खान मामले में सोशल मीडिया साइटस पर या अपने घर की डायनिंग टेबल पर न्यायपालिका को धिक्कार रहे हैं, उन्हें भी घर से बाहर निकलकर, हाथ में मोमबत्तियां लेकर यह जतलाना होगा कि आलोचनाओं के शिकंजे में महज राजनेता या पूंजीपति ही नही बल्कि सलमान जैसे रसूखदार भी नहीं छोड़े जाएंगे. जब एक साथ लाखों आवाज उठेंगी तो मीडिया को ज्यादा ताकत मिलेगी. 
लगेगी आग तो जद में आएंगे कई मकां.. इस इलाके में सिर्फ हमारा आशियां थोड़े ही है

अनिल द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और रिसॅर्च स्कॉलर हैं.

Saturday, October 17, 2015

किस मिट्टी के थे भाखरे साहब

शब्द=श्रद्धांजलि : दिनकर केशव भाखरे 


83 वर्षीय दिनकर केशव भाखरे, राष्ट्रवादी विचारधारा के आदर्श पत्रकार थे। स्वदेशी मन और कर्म ही उनकी पहचान रही। वे अपने परिवार से ज्यादा समाज के लिए जीए। कैंसर परछाई की तरह उनके साथ रहा लेकिन उसने उनमें कभी आत्मदया, कातरता या पराजय बोध नही जगने दिया। आगे पढ़ें : 

वरिष्ठ पत्रकार और पं. दीनदयाल उपाध्याय शोध पीठ के अध्यक्ष दिनकर केशव भाखरे (83 वर्ष) के पार्थिव शरीर को अगिन के सुपुर्द करके जब मैं वापस लौट रहा था तो मेरे सखा प्रभात मिश्र ने श्रद्धाँजलि स्वरूप यही शब्द कहे। उनका शरीर मिट्टी का था, उसी में मिल गया। अगिन भी इस शरीर को पाकर तेजोमयी हुई होगी जिसकी आत्मा ने खुद को समाज या देश हित के लिए तिल-तिलकर जलाया। भाखरे साहब किस मिट्टी के बने थे, यह जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि वैसी जीवटता हम सभी में होनी चाहिए जैसा कि उन्होंने जी या दिखाई। गुजरे तीन महीने उनके लिए पीड़ादायक रहे लेकिन समाज के लिए जो किया या संगठन के लिए जोड़ा, दाह-संस्कार स्थल पर उमड़ी भीड़ इसकी गवाह थी। श्रद्धाँजलि देते हुए विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल ने कहा : परिवार से ज्यादा समाज के लिए  जिया जाये, भाखरेजी का यही संदेश है। 

ईशोपनिषद् ने कहा है : क्रतो स्मर: कृतम् स्मर:। भाखरेजी के जीवन मूल्य उस शिला के थे जिसकी रज, पद को सुशोभित करती है। वे मेहनती, मिलनसार, समय के पाबंद और कार्यकर्ताओं की कद्र करने वाले शख्स थे। उनकी तेज बुद्धि, चारित्रिक शक्ति, संयमित वाणी या अपार धैर्य का कुछ ऐसा असर था कि लोग उनसे जुड़ते चले गए। इस प्रखर आत्मा से मेरा मिलना सन् 1990 के आसपास हुआ तब वे राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ स्वदेश और युगधर्म जैसे अखबारों को पुष्पित-पल्लवित करने में लगे थे। एक सीनियर के तौर पर मेरे लिए सबक था कि विचारधारा और पत्रकारिता के टकराव से बचना। हालांकि बाजारी ताकतें यह संभव नहीं होने दे रहीें। 

औरों के मुकाबले मेरे ऊपर भाखरेजी की कृपा दृष्टि ना के बराबर ही पड़ी लेकिन इसके उलट मेरे मन में उनके लिए हमेशा सम्मान बना रहा। मैं उनके दम गुर्दे का घनघोर प्रशंसक हूं। वे मुझे विलक्षण संयम और वस्तुनिष्ठ तटस्थता वाले व्यक्ति लगे। समयकाल अनुरूप रिश्तों पर जो बर्फ जम जाती थी, उसे पिघलाने में वे माहिर थे। स्वदेशी आंदोलन के साथ जुड़े तो मात्र दिखावे के लिए नहीं वरन् स्वदेशी उनके कर्तत्व में रच-बस गया था। भाखरे जी के साथ कैंसर परछाई की तरह साथ रहा लेकिन आत्मबल और गौमूत्र चिकित्सा के भरोसे वे उसे मात देते रहे। और यह शारीरिक अवस्था उनमें कभी आत्मदया, कातरता या पराजय बोध नही जगा सकी। उन्होंने एक प्रचारक सा जीवन जिया। सालों तक आरएसएस के संघ शिक्षा वर्ग में तृतीय वर्ष के स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण देते रहे। घर में मात्र दो जून की रोटी के लिए ही ठहरते बाकी का समय संघ और उससे जुड़े संगठनों के लिए खपाते रहे। 

उनका व्यक्तित्व तुलसीदास के शब्दों में विसद-गुनमयफल जैसा है। उन्होंने पत्रकारिता का इस्तेमाल अपना घर-बार भरने, राजनीति करने या सत्ता में भागीदारी करने के लिए नही किया अन्यथा बारह साल की पत्रकारिता में मैंने कई श्लाघा-पुरूषों को समय-काल अनुरूप सत्ता की जुगाली करते देखा है। ताउम्र किसी विचारधारा के प्रति समर्पित होना अपने आप में एक चुनौती होता है। कुटिल राजनीति, पूंजीवादी पत्रकारिता और आयातित विचारधारा से ग्रस्त समय की मार के कई थपेड़े उन्होंने सहे लेकिन विचलित हुए बिना आगे बढ़ते रहे। सुना है कि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने खुद यह कहकर कि-भाखरेजी के लिए कुछ करना है-उन्हें दीनदयाल शोध पीठ का अध्यक्ष बनाया। महज ऑबलाइज करने के लिहाज से सरकार ने तीन-चार शोध-पीठ जरूर बनाई हैं लेकिन उसे सुशोभित कर रहे महानुभावों ने अपनी आत्मकथा लिखने के सिवाय कुछ नहीं किया मगर भाखरेजी इनसे जुदा थे।

वैचारिक प्रतिबद्धता कह लें या एक पत्रकार का समाज को कुछ देकर जाने का जुनून, दीनदयाल उपाध्याय शोधपीठ में रहकर जितना संभव हो सका, भाखरे जी ने किया। स्वामी विवेकानंद शाद्र्धशती समारोह हो या दीनदयाल उपाध्याय की जयंती, उन्होंने दोनों ही आंदोलनों की कमान संभाले रखी और उसे सार्थक मुकाम तक पहुंचाया। स्वेदशी मेला और स्वदेशी भवन जैसी बुलंद इबारतें, उन्हीं की प्रयोगधर्मिता का परिणाम हैं। दिनकर कभी मरा नहीं करते। भाखरेजी ने आदर्श जीवन जीने की जो पगडंडी हमें दिखाई है, वह अमूल्य धरोहर है, सुपुत्र दिगिवजय के अंश में वे हमारे बीच हमेशा बने रहेंगे। विनम्र श्रद्धाँजलि..!

अनिल द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा रिसर्च स्कॉलर हैं)
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Saturday, September 19, 2015

देश पहचान गया मगर आप नहीं


संदर्भ : राहुल गांधी और लालू प्रसाद यादव का यह सवाल कि आरएसएस में महिलाओं को तवज्जो क्यों नही मिल रही?

अजब संयोग कह लीजिए कि जिस दिन बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय राजनीति के स्थायी व्यँगय बन चुके लालू प्रसाद यादव, आरएसएस में महिला सरसंघचालक अब तक ना होने का मुद्दा उठा रहे थे, ठीक उसी दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बैनरतले आयोजित अखिल भारतीय कार्यशाला का समापन हो रहा था। जयपुर में दो दिनों तक चले इस वैचारिक कुंभ का विषय स्त्री और भारतीय समाज था। देशभर से पहुंचे विद्वान लेखक, स्तंभकार, पत्रकार और संपादक-जिनमें अधिकांश महिलाएं थी-ने भारतीय महिला के गौरवशाली इतिहास, सामाजिक, आर्थिक और परिवारिक व्यवस्था में महिला का योगदान, प्रगतिशील आंदोलनों और समानता का अधिकार जैसे विषयों पर विशेषज्ञों ने मन और दिमाग की खिडक़ी खोलकर चर्चा की तथा इस नतीजे पर पहुंचे कि देश की महिलाओं को ना सिर्फ सम्मानजनक समानता का अधिकार मिलना चाहिए बल्कि परिवार और समाज की केन्द्रीय इकाई होने के नाते, गरीब और पिछड़ी महिलाओं को जल्द से जल्द आरक्षण दिए जाने में बुराई क्या है?

लालू यादव ने यह सवाल अकेले उठाया हो, ऐसा नही है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी से लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम और छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता ने भी यही सवाल खड़ा किया है कि आरएसएस में महिलाओं के लिए कोई स्थान नही है! पूरी कांग्रेस पार्टी वैचारिक तौर पर किस कदर खोखली हो चुकी है, इसकी गवाही यह सवाल दे रहा है। वर्ना किसी पार्टी के युवराज या प्रवक्ता को प्रोफेशनली ही सही, अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वी के सांगठनिक ढाँचे की ठीक-ठाक समझ तो होनी ही चाहिए। लेकिन लालू और कांग्रेस प्रवक्ता ने बयानों के जो कोड़े आरएसएस पर फटकारे हैं, वे उन्हीं की पीठ पर जा चिपके हैं। जिस पार्टी की महिला कार्यकर्ता शारीरिक शोषण का शिकार या तंदूर में भून दी जाती हों, उन्हें यह सवाल उठाते वक्त चुल्लू भर पानी भी अपने पास रखना था। फिल्म अभिनेत्री नगमा जैसी महिला कांग्रेस कार्यकर्ताओं का दर्द भी किसी से छुपा नही है।

पहले यह समझ लें कि आरएसएस कांग्रेस नही है और ना ही राष्ट्रीय जनता दल, जहां लोकतांत्रिक ढंग से पूछे गए सवाल, तानाशाही या चापलूसी के मकडज़ाल में दम तोड़ देते हैं। गुलाबी नगरी जयपुर में स्त्री को केन्द्र में रखकर आयोजित संगोष्ठी में सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने एक महिला विद्वान के सवाल के जवाब में कहा : हिन्दु समाज को संगठित करने के उद्देश्य के साथ, अपनी शक्ति और सामथ्र्य को नापते हुए जिस दौर में आरएसएस ने जन्म लिया, उस समय महिलाओं के संगठन की उतनी जरूरत महसूस नहीं हुई लेकिन सालों बाद जब आवश्यकता लगी तो संघ ने राष्ट्र सेविका समिति (आरएसएस) रूपी समानांतर महिला संगठन की शुरूआत सन् 1936 में महाराष्ट्र के वर्धा में की गई। श्री भागवत के अनुसार पहले महिलाओं को सीधे आरएसएस का हिस्सा बनाने पर सहमति हुई मगर महिलाओं को पुरूषों की बराबरी से आगे बढ़ाने का अवसर देने के उद्देश्य से समिति का निर्माण हुआ जिसमें प्रमुख संचालिका का पद (वर्तमान में वं. शांतक्का) सर्वोच्च है। इस संगठन से जुडक़र हजारों महिलाएं देश, समाज और परिवार को संवारने में लगी हुई हैं।

जानना जरूरी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 35 से ज्यादा संगठन समाज जीवन में सक्रिय हैं जिनके माध्यम से हजारों महिलाएं जुडक़र समाज और देशसेवा में जुटी हुई हैं। विशेषतौर पर भाजपा, एबीवीपी, मजदूर संघ, सेवा भारती और विद्या भारती में महिलाओं का खासा प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है। भाजपा ने जब अपने सांगठनिक ढांचे में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की ओर कदम बढ़ाए तो आरएसएस ने दिल खोलकर स्वागत किया था।

दूसरी ओर संघ-प्रमुख मोहन भागवत जी के उत्तर से जो प्रेत-सवाल निकला है, वह लालू यादव सहित कांग्रेस या दूसरे अन्य राजनीतिक दलों के लिए ना सिर्फ आईना की तरह है बल्कि अन्य सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों को खुद में झांकने को विवश करता है। यहां ठहरकर यह सोचना गलत ना होगा कि देश के प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के दावे कितने भी किए जाते रहे हों लेकिन ईमानदारी से कहें तो क्या महिलाएं पुरूषों के वर्चस्व को तोडऩे में सफल हो पाई हैं? हाल यह है कि कई राजनीतिक दलों में अपना वाजिब स्थान पाने के लिए उन्हें अभी भी पुरूषों की कृपा पर निर्भर रहना पड़ता है। कांग्रेस को छोड़ दीजिए तो समाजवादी पार्टी या राजद में और भी बुरी स्थिति है जहां महिला आरक्षण के सवाल पर ही औचित्य खड़े किए जाते रहे हैं और जिनके चलते महिला आरक्षण बिल आज तक संसद से पारित नहीं हो सका।

बिना किसी जिरहबख्त के कांग्रेस से ज्यादा लालू यादव के सवाल में थोड़ी गंभीरता नजर आती है। वे लालू ही थे जिन्होंने चारा घोटाले के फेर में खुद के जेल जाने पर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को चौके-चूल्हे से उठाकर सीधे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ला बिठाया था। कहना गलत ना होगा कि लगभग बीस साल पहले हुई यह पहल पुरूषों के वर्चस्व वाले समाज में महिलाओं के लिए एक उम्मीदभरी, सम्मानजनक शुरूआत थी लेकिन लालू ना भूलें कि उनकी पार्टी के अडिय़ल रवैये के चलते ही महिला आरक्षण बिल संसद में अब तक पेश नही हो सका है। स्पष्ट है कि लालू महिलाओं के सम्मान के मुद्दे पर अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं क्योंकि अगले महीने होने जा रहे बिहार विधानसभा चुनाव में उन्हें करो या मरो जैसी चुनौती से जूझना पड़ रहा है।

शायद कांग्रेस के नेता इस लोकोक्ति पर यकीन रखते हैं कि एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच लगने लगता है मगर उन्हें याद होना चाहिए कि संघ के बारे में ऐसा ही एक झूठ गांधी-हत्या को लेकर कांग्रेस के नेता आजादी के समय से दुष्प्रचारित करते आए हैं लेकिन देश ने कभी उस पर भरोसा नही जताया उल्टा अर्जुन सिंह जैसे दिवंगत कांग्रेस नेता को इस आरोप के लिए माफी मांगनी पड़ी थी। अबकि बार कांग्रेस ने बड़प्पन का जो फतवा जारी किया है, वह उसी के लिए आईना बन चुका है।

अनिल द्विवेदी
(लेखक रिसर्च स्कॉलर और अतिथि प्राध्यापक हैं)
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इस आरएसएस को नही पहचानते आप


संदर्भ : राहुल गांधी और लालू प्रसाद यादव का यह सवाल कि आरएसएस में महिलाओं को तवज्जो क्यों नही मिल रही?

अजब संयोग कह लीजिए कि जिस दिन बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय राजनीति के स्थायी व्यँगय बन चुके लालू प्रसाद यादव, आरएसएस में महिला सरसंघचालक अब तक ना होने का मुद्दा उठा रहे थे, ठीक उसी दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बैनरतले आयोजित अखिल भारतीय कार्यशाला का समापन हो रहा था। जयपुर में दो दिनों तक चले इस वैचारिक कुंभ का विषय स्त्री और भारतीय समाज था। देशभर से पहुंचे विद्वान लेखक, स्तंभकार, पत्रकार और संपादक-जिनमें अधिकांश महिलाएं थी-ने भारतीय महिला के गौरवशाली इतिहास, सामाजिक, आर्थिक और परिवारिक व्यवस्था में महिला का योगदान, प्रगतिशील आंदोलनों और समानता का अधिकार जैसे विषयों पर विशेषज्ञों ने मन और दिमाग की खिडक़ी खोलकर चर्चा की तथा इस नतीजे पर पहुंचे कि देश की महिलाओं को ना सिर्फ सम्मानजनक समानता का अधिकार मिलना चाहिए बल्कि परिवार और समाज की केन्द्रीय इकाई होने के नाते, गरीब और पिछड़ी महिलाओं को जल्द से जल्द आरक्षण दिए जाने में बुराई क्या है?

लालू यादव ने यह सवाल अकेले उठाया हो, ऐसा नही है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी से लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम और छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता ने भी यही सवाल खड़ा किया है कि आरएसएस में महिलाओं के लिए कोई स्थान नही है! पूरी कांग्रेस पार्टी वैचारिक तौर पर किस कदर खोखली हो चुकी है, इसकी गवाही यह सवाल दे रहा है। वर्ना किसी पार्टी के युवराज या प्रवक्ता को प्रोफेशनली ही सही, अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वी के सांगठनिक ढाँचे की ठीक-ठाक समझ तो होनी ही चाहिए। लेकिन लालू और कांग्रेस प्रवक्ता ने बयानों के जो कोड़े आरएसएस पर फटकारे हैं, वे उन्हीं की पीठ पर जा चिपके हैं। जिस पार्टी की महिला कार्यकर्ता शारीरिक शोषण का शिकार या तंदूर में भून दी जाती हों, उन्हें यह सवाल उठाते वक्त चुल्लू भर पानी भी अपने पास रखना था। फिल्म अभिनेत्री नगमा जैसी महिला कांग्रेस कार्यकर्ताओं का दर्द भी किसी से छुपा नही है।

पहले यह समझ लें कि आरएसएस कांग्रेस नही है और ना ही राष्ट्रीय जनता दल, जहां लोकतांत्रिक ढंग से पूछे गए सवाल, तानाशाही या चापलूसी के मकडज़ाल में दम तोड़ देते हैं। गुलाबी नगरी जयपुर में स्त्री को केन्द्र में रखकर आयोजित संगोष्ठी में सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने एक महिला विद्वान के सवाल के जवाब में कहा : हिन्दु समाज को संगठित करने के उद्देश्य के साथ, अपनी शक्ति और सामथ्र्य को नापते हुए जिस दौर में आरएसएस ने जन्म लिया, उस समय महिलाओं के संगठन की उतनी जरूरत महसूस नहीं हुई लेकिन सालों बाद जब आवश्यकता लगी तो संघ ने राष्ट्र सेविका समिति (आरएसएस) रूपी समानांतर महिला संगठन की शुरूआत सन् 1936 में महाराष्ट्र के वर्धा में की गई। श्री भागवत के अनुसार पहले महिलाओं को सीधे आरएसएस का हिस्सा बनाने पर सहमति हुई मगर महिलाओं को पुरूषों की बराबरी से आगे बढ़ाने का अवसर देने के उद्देश्य से समिति का निर्माण हुआ जिसमें प्रमुख संचालिका का पद (वर्तमान में वं. शांतक्का) सर्वोच्च है। इस संगठन से जुडक़र हजारों महिलाएं देश, समाज और परिवार को संवारने में लगी हुई हैं।

जानना जरूरी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 35 से ज्यादा संगठन समाज जीवन में सक्रिय हैं जिनके माध्यम से हजारों महिलाएं जुडक़र समाज और देशसेवा में जुटी हुई हैं। विशेषतौर पर भाजपा, एबीवीपी, मजदूर संघ, सेवा भारती और विद्या भारती में महिलाओं का खासा प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है। भाजपा ने जब अपने सांगठनिक ढांचे में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की ओर कदम बढ़ाए तो आरएसएस ने दिल खोलकर स्वागत किया था। दूसरी ओर संघ-प्रमुख मोहन भागवत जी के उत्तर से जो प्रेत-सवाल निकला है, वह लालू यादव सहित कांग्रेस या दूसरे अन्य राजनीतिक दलों के लिए ना सिर्फ आईना की तरह है बल्कि अन्य सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों को खुद में झांकने को विवश करता है। यहां ठहरकर यह सोचना गलत ना होगा कि देश के प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के दावे कितने भी किए जाते रहे हों लेकिन ईमानदारी से कहें तो क्या महिलाएं पुरूषों के वर्चस्व को तोडऩे में सफल हो पाई हैं? हाल यह है कि कई राजनीतिक दलों में अपना वाजिब स्थान पाने के लिए उन्हें अभी भी पुरूषों की कृपा पर निर्भर रहना पड़ता है। कांग्रेस को छोड़ दीजिए तो समाजवादी पार्टी या राजद में और भी बुरी स्थिति है जहां महिला आरक्षण के सवाल पर ही औचित्य खड़े किए जाते रहे हैं और जिनके चलते महिला आरक्षण बिल आज तक संसद से पारित नहीं हो सका।
बिना किसी जिरहबख्त के कांग्रेस से ज्यादा लालू यादव के सवाल में थोड़ी गंभीरता नजर आती है। वे लालू ही थे जिन्होंने चारा घोटाले के फेर में खुद के जेल जाने पर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को चौके-चूल्हे से उठाकर सीधे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ला बिठाया था। कहना गलत ना होगा कि लगभग बीस साल पहले हुई यह पहल पुरूषों के वर्चस्व वाले समाज में महिलाओं के लिए एक उम्मीदभरी, सम्मानजनक शुरूआत थी लेकिन लालू ना भूलें कि उनकी पार्टी के अडिय़ल रवैये के चलते ही महिला आरक्षण बिल संसद में अब तक पेश नही हो सका है। स्पष्ट है कि लालू महिलाओं के सम्मान के मुद्दे पर अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं क्योंकि अगले महीने होने जा रहे बिहार विधानसभा चुनाव में उन्हें करो या मरो जैसी चुनौती से जूझना पड़ रहा है।

शायद कांग्रेस के नेता इस लोकोक्ति पर यकीन रखते हैं कि एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच लगने लगता है मगर उन्हें याद होना चाहिए कि संघ के बारे में ऐसा ही एक झूठ गांधी-हत्या को लेकर कांग्रेस के नेता आजादी के समय से दुष्प्रचारित करते आए हैं लेकिन देश ने कभी उस पर भरोसा नही जताया उल्टा अर्जुन सिंह जैसे दिवंगत कांग्रेस नेता को इस आरोप के लिए माफी मांगनी पड़ी थी। अबकि बार कांग्रेस ने बड़प्पन का जो फतवा जारी किया है, वह उसी के लिए आईना बन चुका है।

अनिल द्विवेदी
(लेखक रिसर्च स्कॉलर और अतिथि प्राध्यापक हैं)
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Wednesday, July 15, 2015

नए अवतार में धरम लाल कौशिक

!! छत्तीसगढ़ : भाजपा !!

सरकार के चिकने-चुपड़े पैरोकार भले ही इसका खंडन करें, मगर धीरे-धीरे ही सही, धरम लाल कौशिक ने प्रदेश भाजपा में अपनी जड़ें इस कदर जमा ली हैं कि पार्टी उन्हें वैकल्पिक चेहरे के तौर पर देख रही है। लाल बत्ती बांटने में श्री कौशिक ने अपने पॉवर का पूरा सदुपयोग किया और चार समर्थकों को सूची में एडजस्ट करा दिया। हालांकि सांसद रमेश बैस, सरोज पाण्डे, रामविचार नेताम, केदार कश्यप और बृजमोहन अग्रवाल जैसे वरिष्ठ विश्वसनीय चेहरों को पछाडऩा कौशिक के लिए बड़ी चुनौती होगी जो तीव्र और लपलपाती इच्छा के साथ मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोए बैठे हैं।
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प्रदेश भाजपा की राजनीति दिन-प्रतिदिन करवटें बदल रही है। अंदरखाने से निकलकर आई ताजा खबर यह है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्री धरम लाल कौशिक, संगठन और सरकार के बीच एक नई ताकत बनकर उभरे हैं। इसके संकेत ताजा मंत्रिमण्डल विस्तार से मिले हैं। सूत्रों के मुताबिक श्री कौशिक की सलाह पर मुख्यमंत्री ने चार चेहरों को लालबत्ती से नवाजा है। इनमें से दो चेहरे ऐसे हैं जिन्हें मुख्यमंत्री ना तो मंत्री बनाने के इच्छुक थे और ना ही कोई निगम-मण्डल पकड़ाना चाहते थे लेकिन ऐनवक्त पर कौशिक के प्रभावी हस्तक्षेप ने इन नेताओं का बेड़ापार करवा ही दिया। बाकी दो को भी प्रदेश भाजपा के मुखिया का आर्शीवाद मिला है।

सबसे ज्यादा पेंच विधायक युद्धवीर सिंह जूदेव को लेकर था। जशपुर जिला में जूदेव परिवार का खासा दबदबा और समर्थन है। स्व. दिलीप सिंह जूदेव ने जनता का जो विश्वास हासिल किया था, उसी का प्रतिफल है कि आज युद्धवीर दूसरी बार विधायक बने हैं। बतौर संसदीय सचिव उनका कार्यकाल सराहनीय रहा था। इस बार जूदेव मंत्री बनना चाहते थे लेकिन मुख्यमंत्री की नापसंदगी के चलते उनका सपना अधूरा ही रह गया मगर  कौशिक की कृपा के बाद वे आबकारी निगम के चेयरमैन तक पहुँच ही गए। दरअसल छोटे जूदेव के कार्यकलापों को लेकर सरकार, संघ और संगठन का एक धड़ा हमेशा चिंतित रहता आया है। कई नेताओं ने इसकी शिकायत ना सिर्फ मुख्यमंत्री से की बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी संदेश भेजा जा चुका है कि जूदेव को लाल बत्ती देना खतरे से खाली नहीं।

सब तरफ से निराशा हाथ लगने के बाद अंतत: छोटे जूदेव ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष धरम लाल कौशिक का दामन थामा जिसके बाद कौशिक ने संगठन महामंत्री राम प्रताप सिंह को मनाया और दोनों ने मिलकर मुख्यमंत्री से युद्धवीर को निगम-मण्डल में एडजस्ट करने की सिफारिश कर दी। मुख्यमंत्री सचिवालय के मुताबिक मंत्री ना बनने से गुस्साये युद्धवीर के समर्थकों ने जशपुर बंद रखते हुए डॉ. रमनसिंह का पुतला फूँका था जिससे पार्टी और संगठन के बड़े नेताओं के कान खड़े हो गए थे मगर जैसा कि भाजपा अनुशासन के मामले में बेहद सख्त मानी जाती है सो युद्धवीर को कड़ा संदेश भिजवा दिया गया। इसके बाद छोटे जूदेव कई दिनों तक डैमेज कंट्रोल में लगे रहे।

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का आर्शीवाद पाने वालों में एक नाम भूपेन्द्र सवन्नी का है। भाजपा के महामंत्री रह चुके सवन्नी, कौशिक के दाएं हाथ माने जाते हैं। दूसरा वे जिस सिख समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह भाजपा का तगड़ा वोटबैंक भी है। सवन्नी एक तरफ कौशिक के सिपहसालार बने रहे तो दूसरी ओर बतौर महामंत्री, संगठनमंत्री रामप्रताप सिंह का विश्वास भी हासिल करते रहे। दोनों की नजदीकी का ही सिला रहा कि उन्हें हाऊसिंग बोर्ड जैसे कमाऊ विभाग की जिम्मेदारी दी गई है।

खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष कृष्णा रॉय भी प्रदेश भाजपा अध्यक्ष धरम लाल कौशिक का आर्शीवाद लेने में सफल रहे। इसके पीछे पूर्व में पर्यटन मण्डल और फिर हस्तशिल्प बोर्ड के अध्यक्ष के तौर पर श्री रॉय का पिछला कार्यकाल बेदाग रहा था जिसके चलते उन्होंने मुख्यमंत्री का आर्शीवाद हासिल किया मगर श्री कौशिक ने इस बार रॉय का नाम खुद होकर आगे बढ़ाया नतीजन श्री राय, खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड का पद हासिल करने में सफल रहे।

पहले विधायक और फिर राजधानी का महापौर बनते-बनते रह गए पार्टी के युवा नेता संजय श्रीवास्तव की सिफारिश भी प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने ही की। दरअसल युवा मोर्चा का अध्यक्ष रहते हुए श्रीवास्तव ने श्री कौशिक की मदद संगठन को तराशने में की थी। बतौर सभापति उनका कार्यकाल भी बेदाग और परिणामदायी रहा था। दूसरी ओर जातीय समीकरण के हिसाब से वे फिट बैठ रहे थे। पहले विधायक, फिर महापौर की टिकट से वंचित रहने वाले संजय श्रीवास्तव को निगम-मण्डल सौंपने का मन खुद मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने बना लिया था लेकिन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्री कौशिक ने भी उन्हें गहरा समर्थन दे दिया। संभवत: इन्हीं समीकरणों के चलते श्रीवास्तव को रायपुर विकास प्राधिकरण जैसे विभाग की जिम्मेदारी मिली है।

तो साफ है कि श्री कौशिक अपनी आवश्यकता सिद्ध करते जा रहे हैं। इस पूरी कहानी का लब्बोलुआब यही है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष धरम लाल कौशिक, संगठन और सरकार में एक ऐसे शिखर पुरूष के तौर पर उभरे हैं जो उदार आईने में फिट हैं तथा पार्टी के लिए विकल्प के तौर पर देखे जा रहे हैं। थोड़ा साफ करेंं तो उनके समर्थक उनमें मुख्यमंत्री पद का चेहरा भी नजर पाते हैं। हालांकि अपनी अदाभरी शालीन चुप्पी के साथ कौशिक इसे महज मीडिया का आंकलन करार देते हैं लेकिन सच यह है कि भविष्य में यदि मुख्यमंत्री पद के विकल्पों की तलाश पार्टी करती है तो जातीय समीकरण के हिसाब से कौशिक इस पर फिट बैठते हैं। हालांकि उनके समक्ष रमेश बैस, सरोज पाण्डे, नंद कुमार साय, रामविचार नेताम और केदार कश्यप जैसे वरिष्ठ विश्वसनीय चेहरे को पछाडऩा बड़ी चुनौती होगी जो तीव्र और लपलपाती इच्छा के साथ मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोए बैठे हैं।

अनिल द्विवेदी
लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं